अध्यात्म में ‘वीर्य बचाने’ की बात क्या है?
प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में वीर्य बचाने को बहुत ज़्यादा महत्व दिया जाता है।
आचार्य प्रशांत: किस उपनिषद् में लिखा है, “वीर्य बचाओ”?
प्र: नहीं, मैंने पढ़ा था।
आचार्य: किस उपनिषद् में?
ये तो ऐसा लग रहा है जैसे कि पुराना नारा हो, “वीर्य बचाओ, वीर्य बढ़ाओ।” ये कौन से उपनिषद् में लिखा है, किस संत ने ये गाया है, बताओ मुझे?
राग दरबारी जो उपन्यास है उसमें ज़रूर एक वैद्य जी थे, जो सब अशिक्षित, अनपढ़ गाँव वालों को बोला करते थे, कि “वीर्य बचाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि वीर्य की एक बूँद एक किलो खून से बनती है, और एक किलो खून दस किलो दाल, दस किलो चावल, और न जाने कितने और दस किलो से बनता है।” तो कहते थे, “देख लो, बूँद एक वीर्य की, और उसके लिए इतना अनाज लगता है। तो वीर्य की बूँद बचाओ, भारत कृषि-प्रधान देश है, अन्न का सम्मान करना सीखो।”
किसी उपनिषद् में तो नहीं लिखा। हाँ, भारत की दुर्दशा पर राग दरबारी में जो व्यंग्य किया गया है उसमें ज़रूर ये वर्णित है। और जहाँ कहीं भी वीर्य को लेकर के इतनी गंभीरता से बातें की जाएँगी, उसको तुम हास्य का ही एक प्रकरण मानना। वो बात हास्यास्पद ही है, उस पर अधिक-से-अधिक हँसा ही जा सकता है, लतीफा है।
अरे सत्य के साधक को तुम वीर्य के किस्से सुना रहे हो, ये क्या पागलपन है? जिसे परमात्मा से इश्क़ है उससे तुम कह रहे हो, “वीर्य बचाओ”। अजीब।
जैसे कोई अपनी फ़्लाइट पकड़ने भाग रहा हो, और उससे तुम कह रहे हो, “वीर्य बचाना, वीर्य।” वो कह रहा है, “वीर्य हम खर्च कहाँ कर रहे हैं कि बचाएँगे? हमारे पास ज़िन्दगी में एक सार्थक उद्देश्य है, हमसे तुम वीर्य की चर्चा कर ही क्यों रहे हो?” क्या करेगा बचाकर? परलोक ले जाएगा?
प्र२: ध्यान की विधि में उसका उपयोग किया जाता है।
आचार्य: मुझे नहीं पता वीर्य-मेडिटेशन कौन सा होता है। वीर्य को इस्तेमाल करके ध्यान किया जाता है?
प्र३: योग गुरु ये बताते हैं कि आपको अपने वीर्य को रीढ़ की हड्डी से गुज़ारते हुए ऊपर के चक्रों तक लाना है।
आचार्य: ये किस उपनिषद् में लिखा है?
प्र३: बहुत से योग-गुरु ऐसा पढ़ाते हैं।
आचार्य: मैं पूछ रहा हूँ, ये किस शास्त्र में लिखा है?
प्र३: शास्त्र में तो नहीं है।
आचार्य: अगर शास्त्र में नहीं लिखा है तो जो ये पढ़ा रहे हैं, वो टीचर (शिक्षक) कैसे हो गए, वो तो ढोंगी हैं।
प्र३: कुंडलिनी क्रिया-योग।
आचार्य: कहाँ लिखा है कि वीर्य को उठाना है?
प्र४: ओशो के ‘डायनामिक मेडिटेशन’ (सक्रिय ध्यान विधि) में।
आचार्य: अरे कहाँ लिखा है? आज कोई आकर कुछ भी बता दे तुम्हें, तो मान लोगे?
प्र४: यह केवल शुरुआत के लिए बताया जाता है, इसके बारे में लिखते नहीं हैं ज़्यादा जगह पर। तो जहाँ गुरु-शिष्य परंपरा होती है, एनर्जी-इनीशिएशन देते हैं, कुंडलिनी क्रिया-योग सिखाते हैं, वहाँ पर ये चीज़ सिखाई जाती है।
आचार्य: सारे भारतीय अध्यात्म का जो प्रमाण होता है उसको कहते हैं श्रुति-प्रमाण। और जिस चीज़ का प्रमाण श्रुति में ना मिल रहा हो, समझाने वालों ने साफ़-साफ़ चेतावनी देकर के कहा है कि उसको अवैध मानना, ठगी मानना। अगर श्रुति-प्रमाण उपलब्ध नहीं है तो तुम्हें जो कुछ बताया जा रहा है, उससे दूर हो जाना तुरंत। मुझे बताओ वेदांत में कहाँ पर उल्लिखित है कि वीर्य को ऊपर की तरफ़ लेकर के आना है?
उपनिषद् बड़े सीधे-साधे वक्तव्य हैं, बड़े सरल चित्त की सीधी बात करते हैं। वो इन सब दंद-फंदों में नहीं पड़ते हैं। ये सारी बातें जटिल चित्तों को आकर्षित करने के लिए होती हैं।
और शास्त्र की भी परिभाषा साफ़ समझ लो। उस ग्रंथ को शास्त्र कहा जाता है जिसका एकमात्र प्रयोजन जीव की मुक्ति हो। जिस भी ग्रंथ का प्रयोजन है जीव की मुक्ति, सिर्फ़ उसको ही शास्त्र कह सकते हैं, बाकी ग्रंथों को शास्त्र मत कह देना।
प्र३: आचार्य जी, ओशो के वक्तव्यों को क्या मानें?
आचार्य: जिस हद तक मुक्ति के लिए वो बात करते हों, उस हद तक सुनना। और जहाँ पर तुम्हें दिखाई दे कि विषयवस्तु मुक्ति से हटकर कुछ और हुई जा रही है, तुरंत उठ खड़े हो जाना। गुरु के पास तुम चमत्कारों के किस्से सुनने और मन-बहलाव के लिए नहीं जाते हो। गुरु के पास जाने का तुम्हारा एक ही प्रयोजन होता है, मुक्ति और मात्र मुक्ति।
एक-सौ-आठ उपनिषद् हैं, और एक-सौ-आठ वो हैं जिनका नाम दर्ज है, वास्तव में दो-सौ से ऊपर हैं। पढ़ते-पढ़ते उम्र बीत जाए, ग्रंथावली खत्म ना हो। उसके बाद आपको समय कैसे मिल जाता है ये इधर-उधर के नामों में भटकने के लिए? आदिग्रन्थ पढ़ लिया पूरा? कबीर-साखी पढ़ ली पूरी? बाबा फरीद का रचना-संसार पढ़ लिया पूरा? सिक्खों के गुरुओं की वाणी पढ़ ली पूरी?
नहीं, उनको पढ़ेंगे जो बताते हैं कि, “हम अभी बंबई में खड़े थे और अचानक हम लंदन पहुँच गए।” कबीर साहब ने तो कभी ऐसे चमत्कार का दावा नहीं किया, ना सूफियों ने किया, ना सिक्खों ने किया, ना उपनिषदों के ऋषियों ने किया। इसीलिए वो आपको सुहाते नहीं, इसीलिए आपके मन में उनके प्रति कोई श्रद्धा, सम्मान नहीं, इसीलिए आपको उनका नाम भी नहीं पता।
मैं आपसे कहूँ, ‘नचिकेता’, आप कहेंगे, “कौन?”
हाँ, बाज़ारू नाम जितने हैं वो सब हमें पता हैं। तो फिर हमारी ज़िन्दगी भी वैसी ही हो जाती है, बाज़ार जैसी।
प्र५: आचार्य जी, मैंने स्वयं ओशो जी द्वारा सुझाई गई सक्रिय ध्यान विधि का पालन किया है और कामवासना से राहत पाई है। मैंने ओशो आश्रम में बहुत से जवान लोगों से भी बात की है उन्हें भी लाभ हुआ है।
आचार्य: तुम्हें लाभ हो रहा है उससे?
प्र५: निश्चित रूप से।
आचार्य: तो करे जाओ। सवाल क्या है?
प्र५: नहीं सवाल यही है कि क्या यह काम ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदलने की प्रक्रिया सही है?
आचार्य: बाबा, आध्यात्मिक चाह तुम्हारी है, काम-ऊर्जा शरीर की है।
प्र५: तो क्या काम ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित नहीं किया जा सकता?
आचार्य: नहीं, एक ही एनर्जी (ऊर्जा) नहीं है।
प्र५: क्या यह एक अलग प्रकार की है?
आचार्य: बिलकुल अलग है, बहुत अलग है।
पशुओं में भी कामवासना होती है, क्या उन्हें राम की तलाश है? बोलो? जिस हद तक तुम पशु हो तुममें भी कामवासना है, उसका राम से क्या सम्बन्ध है? और फिर बताना ज़रा, जो कामवासना की उम्र के पार निकल गए हों, जिनमें कामुकता की ऊर्जा शेष ना हो, क्या राम के प्रति भी उनकी ऊर्जा में कमी आ जाएगी?
ये सब नई-नई बातें हैं नए ज़माने की, क्योंकि इस समय पर कामोत्तेजना के साधन बहुत मिले हुए हैं। आदमी का मन इतना कामुक हो गया है कि उसे अध्यात्म में भी कामवासना ज़रूर चाहिए। आदमी का मन इतना कामुक हो गया है कि वो अध्यात्म की ओर भी तभी आएगा जब अध्यात्म में इन सब शब्दों की बरसात हो रही हो, ‘वीर्य’, ‘संभोग’। किन संतों ने वीर्य और संभोग के गीत गाये, बताओ? मीरा कृष्ण को पूजती हैं, मीरा के किसी गीत में तुम्हें कामुकता लेश-मात्र भी दिखाई देती है? लल्लेश्वरी के पास जाओ, अक्का महादेवी के पास जाओ, वो भी उस परम-पुरुष के ही प्रेम में हैं, उनके वक्तव्य में तुम्हें कहीं कामुकता दिखाई देती है?
पर बाज़ारू अध्यात्म में ये आवश्यक हो जाता है कि बार-बार नाम लिया जाए, “आओ आओ, वीर्य का उपयोग करके तुमको मुक्ति दिलाएँगे।” तुम्हें लगता है, “बहुत बढ़िया, चलो। वीर्य को लेकर के तो हम वैसे भी बड़े विचारमग्न थे ही, अब विचारों की वही श्रृंखला आगे बढ़ पाएगी।”
ऐसा तो नहीं है कि कबीरों के ज़माने में लोगों के वीर्य नहीं होता था, आज तुम्हारे जितने हैं उससे ज़्यादा होता था तब। कबीर साहब ने, और रैदास ने, और नानक साहब ने कब बात करी तुमसे कि वीर्य को उछाल दोगे तो सीधे स्वर्ग में जाकर गिरोगे? कब कहा भाई उन्होंने तुमसे, बताना?
प्र५: आचार्य जी, मुझे याद नहीं कहाँ पढ़ा था, लेकिन कोई वार्तालाप पढ़ी थी, चाहे वो शायद ग्रंथ से थी या कहाँ से मुझे याद नहीं। तो उसमें पूछते हैं कि, “क्या सत्य तक कर्म ले जाएँगे?” “नहीं, लेकिन सुविधा प्रदान करेगा अच्छा कर्म।“ “क्या योग ले जाएँगे?” “नहीं, लेकिन सुविधा प्रदान करेगा।” इसी तरह क्या काम ऊर्जा ले जा सकती है?
आचार्य: पहले तुम अच्छे से याद तो करो कि कहाँ पर क्या पढ़ा है।
कल हमने बात करी थी कि क्या अच्छे कर्म कर-कर के मुक्ति पाई जा सकती है? तो उत्तर क्या आया था? “जो मुक्ति की ओर ले जाए, वो कर्म अच्छा है।” तुम्हारे मन में पहले मुक्ति की अभीप्सा तो होनी चाहिए, केंद्र पर मुक्ति तो बैठी हो। मन के केन्द्र पर तो वीर्य बैठा हुआ है। तो तुम और क्या करोगे, वीर्य के समुंदर में जाकर गोते मारो, और क्या करोगे?
जब मन के केन्द्र पर वीर्य बैठा है, तो फिर तुम्हें मुक्ति भी वीर्य वाली ही चाहिए। मन का सम्राट किसको बना रहे हो ये तो देखो, नीयत क्या है ये तो देखो। नीयत ही जब साफ़ ना हो तो फिर क्या होगा।
नीयत साफ़ हो तो फिर तुम रास्ते के पत्थरों का भी इस्तेमाल कर लेते हो पुल बनाने के लिए। नीयत ही अगर ये हो कि पत्थरों से बड़ी आसक्ति है, तो फिर तुम पुल को भी तोड़ोगे, ताकि पत्थर उपलब्ध हो जाएँ।
प्र६: आचार्य जी, हम यहाँ पर जन्म क्यों लेते हैं? हमें अनुभव करने के लिए शरीर क्यों धारण करना पड़ता है? यह क्यों आवश्यक है?
आचार्य: अभी तुमने करा है, तुम बताओ। तुम्हें नहीं पता न कि तुम क्यों हो इस पृथ्वी पर?
प्र६: नहीं।
आचार्य: हाँ, तो इसी से पता चल जाता है कि तुम्हारा जन्म कैसे हुआ, और क्यों हुआ। कैसे हुआ? बेहोशी में हुआ, प्रमाण ये है कि तुम्हें पता ही नहीं है कि जन्म क्यों हुआ। जिस चीज़ का तुम्हें पता ही ना हो और हो जाए, निश्चित रूप से वो बेहोशी में हुई है।
जैसे तुम रात भर शराब पीने के बाद सुबह उठो, और सर में दर्द हो, और आँखें जल रही हों, और सामने आईना टूटा पड़ा हो। तो तुम यही कहते हो न, “ये कैसे हुआ, मुझे कुछ याद नहीं, ये कैसे हुआ?” पर वो हो तो गया ही है। इसका मतलब वो हुआ बेहोशी में। तो तुम कैसे हुए, तुम बेहोशी में हुए। तुम्हें कुछ पता ही नहीं है तुम कैसे हुए।
तुम क्यों हुए? तुम इसलिए हुए ताकि तुम पता कर पाओ कि ‘होश’ क्या चीज़ है। नहीं तो जैसे अभी ये सवाल सता रहा है, जीवन भर सवालों से ही जूझते रहोगे। पैदा इसलिए हुए हो ताकि होश में आ सको।
प्र६: बेहोशी क्या है?
आचार्य: जब तुम्हें कुछ पता ही ना हो, और तुम्हारे साथ बहुत कुछ हो रहा हो, वही बेहोशी है।
प्र६: आचार्य जी, क्या इस पृथ्वी पर नकारात्मक शक्तियाँ हैं? यह सच है या केवल एक भ्रांति?
आचार्य: ओह, यह निश्चित ही सत्य है कि पृथ्वी पर नकारात्मक शक्तियाँ हैं। हमारा होना ही प्रमाण है कि पृथ्वी पर नकारात्मक शक्तियाँ हैं, आईना प्रमाण है।
प्र६: क्या यह इंसानों को भी प्रभावित करती है, नकारात्मक शक्तियाँ?
आचार्य: मैंने क्या बोला पहले समझिए।
प्र६: सर, वो समझ गई।
आचार्य: क्या समझ गईं?
प्र६: यह व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है।
आचार्य: क्या समझ गईं? कौन है वो नकारात्मक शक्ति?
प्र६: हम हैं।
आचार्य: बस तो हो गया। अब आप ही जब वो हैं, तो और कौन आएगा आपको बाहर से हिट (प्रभावित) करने? आप खुद को ही हिट कर रही हैं। हमें किसी बाहरी दुश्मन की जरूरत नहीं होती।
प्र६: तो यह आंतरिक है?
आचार्य: जिसको हम इंटर्नल (आंतरिक) बोल देते हैं भ्रमवश, वही तो हमें मारे डाल रहा है, क्योंकि वो इंटर्नल है ही नहीं।
प्र५: आचार्य जी, जैसे बोलते हैं कि एंसेस्ट्रल प्रॉब्लम (पितृ दोष), इस बारे में आपका क्या कहना है?
आचार्य: बेटा, मैं सिर्फ़ मुक्ति की बात करता हूँ, मुझे मनोरंजन में कोई रस नहीं है। उसके लिए जाओ फिल्म देखो, सिम्बा।
(श्रोतागण हँसते हैं)
तुम्हारे आधे से ज़्यादा सवाल तो वीर्य, और ये, और वो हैं, मुक्ति की तो तुम्हें कोई बात ही नहीं करनी है, ना बंधन की बात करनी है। अध्यात्म की सिर्फ़ एक विषयवस्तु होती है, क्या? मुक्ति। उसकी जगह तुम इधर-उधर की बात करोगे तो मैं उपलब्ध नहीं हूँ।
प्र: आचार्य जी, हम यहाँ बैठकर मुक्ति का सवाल करने के बजाय मनोरंजन का सवाल कर रहे हैं तो क्या इससे हमारा मुक्ति के प्रति डर दिखता है?
आचार्य: दिमाग बुरी तरह से लिप्त है वीर्य में, तो इसीलिए सीधे-साधे सवाल आ ही नहीं पा रहे, मुक्ति की जगह बात हो रही है सेक्स की। और मैं कहूँ ऋभु और दत्तात्रेय, तो उसकी जगह बात हो रही है बाबाजी की।
कारागार में एक क़ैदी है, उसके गले में ज़ंजीर है, उसके हाथ में ज़ंजीर है, पाँव में ज़ंजीर है, और वो कामनाग्रस्त घूम रहा है, ऐसे को तुम क्या कहोगे? ये मुक्ति का अधिकारी भी है? इसे मुक्ति मिलनी चाहिए क्या? इसके तो तन मन में, इसके रोएँ-रोएँ में, इसके प्रत्येक विचार में मात्र मुक्ति की कामना होनी चाहिए थी। वो क़ैदी हम हैं, हम शिख से लेकर नख तक ज़ंजीरों से ही जकड़े हुए हैं। हमें समय कैसे मिल जा रहा है कामना में गोते खाने का? बताओ मुझे?
बताओ?
वो तभी मिल पाएगा जब तुमने बेड़ियों से समझौता कर लिया हो। मैं तुम्हें कोई ध्यान नहीं सिखा रहा, मैं कह रहा हूँ, “विद्रोह तो करो पहले बेड़ियों से, यही ध्यान है।”
घर के कोने में बैठ जाना आसन मारकर, वो ध्यान नहीं होता, नकली है सब। तुममें सर्वप्रथम तुम्हारी वर्तमान हालत के प्रति आक्रोश होना चाहिए, उबाल होना चाहिए, यही ध्यान है। आज़ादी ध्येय हो, तब जीवन ही ध्यान है।
तुम्हारा ध्येय भी है आज़ादी? तुम्हारा ध्येय तो यही है कि ये विधि जान लें, फलाने तरह का आध्यात्मिक मनोरंजन कर लें। जिसमें वो तड़प ही नहीं, क्रोध ही नहीं, ऊष्मा ही नहीं, उसको आज़ादी कैसे मिलेगी भाई? ठंडे लोगों के लिए नहीं है आज़ादी। युद्धरत हो तुम, सामने दुश्मन खड़ा है, गोलियाँ, बम, तीर, बरछे, तलवार, सब चला रहा है और तुम कह रहे हो, “वीर्य को ज़रा ऊपर उठाना है।” ये हद हो गई। कुरुक्षेत्र है, सामने दुर्योधन है, दु:शासन है, कर्ण है, अश्वत्थामा है, द्रोण है। अब कृष्ण क्या अर्जुन से ये कहेंगे कि, “अर्जुन अपने वीर्य को सम्भाल”? अर्जुन कहेगा, “मेरा वीर्य जा कहाँ रहा है कि सँभालूँ?”
अरे धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र है, इसमें वीर्य कहाँ से आ गया? पर तुम्हें ये पता ही नहीं कि तुम कुरुक्षेत्र में खड़े हो, तुम्हें दुश्मन दिखाई ही नहीं देता। तुम्हें किस्से-कहानियाँ चाहिए, तुम्हें चमत्कार चाहिए, तुम्हें मनोरंजन चाहिए।
कुछ बात समझ में आ रही है?
प्र: क्या ये सारे सवाल मूर्खतापूर्ण हैं?
आचार्य: नि:संदेह।
मैं एक योद्धा हूँ, मुझे युद्ध से मतलब है। मुझे पता है कि सामने असली चुनौती क्या है। यहाँ तलवारों की झंकार है, गोले फट रहे हैं, आग है, खून बह रहा है, वीर्य नहीं बह रहा है। कबीर का सूरमा खून बहाता है, या कबीर ये गाते हैं कि मेरा सूरमा वो है जो वीर्य बहाए? हमने तो नहीं पढ़ी ऐसी कोई साखी।
ये अध्यात्म में नया-नया वीर्य का बड़ा ज़बरदस्त प्रवेश हुआ है।
प्र: ओशो जी तो वैसे इन प्रश्नों को बहुत पसंद करते थे।
आचार्य: बेटा उन्हें प्रेम बहुत था तुमसे, और तुम्हें ‘काम’ से प्रेम है।
जैसे घर का कोई जवान लड़का बहक गया हो और वो सिर्फ़ एक ही मुद्दे पर बात करता हो, ‘काम’। तो उसके बाप को अगर अब उसे बुलाकर उससे बात करनी है, तो उससे यही बोलेगा, “बेटा घर आजा, आज कामवासना पर चर्चा करेंगे।” उसको अगर बता दिया जाए कि, “घर आ, आज अष्टावक्र-महागीता पर बात होगी”, तो वो आएगा ही नहीं।
प्र२: आचार्य जी, मेरे यहाँ होने के दो कारण हो सकते हैं, या तो मैं जीवन से भाग कर आया हूँ, या जीवन में असारता देखी है। आपने कहा कि संसार की निःसारता देखी फिर यहाँ आए तो ठीक है।
अगर मुझे अन्दर से लग रहा है कि मैं जीवन से भाग कर आया हूँ, तो?
आचार्य: नहीं, अगर तुम भाग कर भी आए हो तो भी सही है, बस आधा-अधूरा मत भागना।
भागना, या पलायन करना, या एस्केप (बच निकलना) करना बिलकुल कोई बुरी बात नहीं होती, बस जब पलायन करो तो पलायन पूर्ण होना चाहिए। पलायन ऐसा नहीं होना चाहिए कि दो दिन को पलायन करा है, वीकेंड गेटअवे (सप्ताहांत भर के लिए दूर हो जाना) है, वो नहीं होना चाहिए।
पलायन करो तो फिर पूरा ही करो न। जब कोई चीज़ अब दिख गया कि असार है, छोड़नी है, तो फिर पूरी ही छोड़ो। वो वाली नहीं कि दो दिन को गए पहाड़ पर, और फिर रविवार को चलकर सोमवार की सुबह फिर खड़े हो गए, “जी हुज़ूर, हम बिलकुल अब ताज़ा होकर के आए हैं बंदगी करने के लिए, यस बॉस (हाँ, साहब)।“
प्र२: पर, दो चीज़ें हैं न। मैं ऑफिस (कार्यालय) का काम कर नहीं पा रहा हूँ ढंग से इसलिए आया यहाँ या फिर ऑफिस का काम करके ये समझ गया कि इससे कुछ मिल नहीं रहा है। ये दोनों अलग हैं न?
आचार्य: ये दोनों अलग हैं।
प्र२: तो मैं तो काम को छोड़कर भाग आया हूँ।
आचार्य: मैं कह रहा हूँ अगर भाग कर आए हो तो पूरी तरह भाग कर आओ। पूरी तरह भाग कर आने का मतलब है कि वापस जाने का कोई लालच शेष ना रहे। भागना बुरा नहीं है, आधा-अधूरा भागना बुरा है।
प्र२: और अगर लालच है अभी उधर का, असारता नहीं दिखी है पूरी?
आचार्य: असारता यहाँ देख लो। आधी असारता देखकर आए हो, बाकी आधी मैं दिखा दूँगा, साथ-साथ काम करेंगे। (मुस्कुराते हुए)
प्र३: आपकी आध्यात्मिक यात्रा में आपके आध्यात्मिक गुरु कौन थे?
आचार्य: एक तो मेरा कुत्ता है जिसका नाम है ‘कोहम’, एक मेरा खरगोश था जिसका नाम था ‘नंदू’, कुछ छिपकलियाँ, कुछ चींटे, और मेरे इतने सारे श्रोता-मित्र, सब गुरु ही हैं। अभी नवीनतम गुरु तुम हो।
प्र३: इंसानों में कोई गुरु?
आचार्य: तुम ह्यूमन (इंसान) नहीं हो?
प्र३: नहीं मैं तो गुरु नहीं हूँ।
आचार्य: अरे, अब मैं कह रहा हूँ तुम गुरु हो, तुम मान क्यों नहीं रहे? बहुत विनम्र गुरु हैं, मानते ही नहीं कि गुरु हैं।
(श्रोतागण हँसते हैं)
तुम्हें बात मज़ाक की लग रही है क्या? तुम्हें पता ही नहीं है मैंने अपने खरगोशों से कितना सीखा है।
प्र३: मतलब ज़िंदा गुरु।
आचार्य: अरे वो ज़िंदा ही थे।
प्र३: ह्यूमन की बात कर रहा हूँ।
आचार्य: ह्यूमन तुम हो।
जिसे सीखना होता है वो तो हर दिशा से सीखेगा।
मैं प्यासा हूँ, ये पानी पिलाएँगे तो मैं उस पानी की जात देखूँगा क्या? मैं इनसे क्यों ना सीखूँ? कि नहीं सीखूँ?
तो आपत्ति क्या है फिर? और अगर मैं ऐसा हूँ कि मैं इनसे नहीं सीख सकता, तो यक़ीन मानो कि फिर मैं कृष्ण से और कबीर से भी नहीं सीख पाऊँगा। क्योंकि सीखने वाला तो सीखने को प्रस्तुत है, रौशनी चाहे जहाँ से आती हो, खिड़की से आए तो खिड़की से, रौशनदान से आए तो रौशनदान से, दरवाज़े से आए तो दरवाज़े से। और एक छोटी सी झिर्री से आए, तो वहाँ से भी तो चलेगी कि नहीं चलेगी?
प्र३: इस पूरे रास्ते पर आपकी सबसे बड़ी चुनौतियाँ क्या थीं?
आचार्य: सामना जो कर रहा हूँ। देखो न कैसे-कैसे सवाल आते हैं, यही तो है चैलेंज (चुनौती), यही है लाइव चैलेंज (सीधी चुनौती)।
अरे बेटा, दिख ऐसे रहा है कि तुम नीचे बैठे हो मैं ऊपर बैठा हूँ, हक़ीक़त ये है कि मैं हर समय अपने श्रोताओं के पाँव ही दबा रहा होता हूँ, मैं हाथ जोड़कर खड़ा होता हूँ, कि, “अरे सुन लो, समझ लो, मान जाओ।“ तुम मानने को नहीं राज़ी होते। अभी आधा खयाल मुझे ये आ रहा है कि कल इस वक़्त तक तुम अपने घर पहुँच चुके होओगे।
मेरे पास बहुत कम समय शेष है। मैं उदाहरण दे रहा था न कि अगर आठ बजे की फ़्लाइट हो और छह बजे तुमने सामान भी ना बाँधा हो तो तुम्हारी क्या हालत होगी। क्या हालत होती है, “अरे, धक धक धक धक धक धक”, मेरी वो हालत हमेशा रहती है। कल तक इस समय तक तुम ना जाने कहाँ पहुँच चुके होओगे। मेरे पास बहुत कम समय है तुम्हारे साथ, और तुम सुनने को राज़ी नहीं।